Thursday, December 30, 2010

सिफ़र..शून्य से फ़लक तक..


मॉल्स और एमएनसीज़ के इस शहर में आये हुए दो साल हो चुके हैं..हर रोज़ कुछ नया सीखा..देखा..जाना और समझने की राह पर रहा।सबसे ख़ास बात कि इस शहर के पास आपको देने के लिए बहुत कुछ है बशर्ते आप ख़्वाहिशमंद हों। अपने आस-पास नज़रें नचायेंगे तो ज़िन्दगी के कई क़रतबों से वास्ता होगा। सिफ़र..A Theatre Fest ज़िन्दगी का एक ऐसा ही प्रश्नवाचक सा सफ़र करा गया मुझे..बहुत से सवाल जिनके जवाब ढूंढने की हम कोशिश भी नही करते वैसे सवालों से साक्षात्कार करा गया सिफ़र..इन मेट्रोपॉलिटन शहरों में जहां बादल सुलगता जा रहा हो..और ज़मीन के रूप में नंगी सड़क बेआबरू सी पड़ी मिलती हो वहां सच्चाई और यथार्थ का अभिनय ही सही बड़ा सुकून देता है। सूरते हाल की अदा पेश करता सिफ़र था तो महज़ तीन दिन का लेकिन ये सफ़र आंखों..मन..दिल और दिमाग के कुछ पुराने बंद किवाड़ों को खोल गया..कला..लोकसंस्कृति..लोग..भाषा, ये सबकुछ हमेशा से मेरे मन में कौतुक के अनगिनत भाव उत्पन्न करते आये हैं और ये भाव मेरे मन मे इतने अंदर तक पैठ बना चुके थे कि ख़ुद की ज़िन्दगी बनाने..संवारने की क़वायद में उलझा हुआ होते हुए भी नज़रें आस-पास इन कला के रंगों की ताक में तरस कर रह जातीं। शुक्रिया सिफ़र मेरे मन के इस बछड़े की प्यास मिटाने के लिए।मेरे पसंदीदा अदाकार और उससे भी कहीं ज़्यादा क़ाबिल निर्देशक और हिन्दी सिनेमा के शोमैन राजकपूर कहा करते थे कि उनकी फ़िल्में उनके बच्चे की तरह हैं और हिट फ़िल्मों से ज़्यादा वो अपने नाकाम सिनेमा को चाहते थे..इसका तर्क भी लाजवाब होता कि जो ठीक है वो तो ख़ुद-ब-ख़ुद सहारा पा लेगा मगर जो बच्चा अपाहिज है वो उनके दिल के क़रीब है। मतलब क़ामयाब फ़िल्में तो प्रसिद्धि पा लेंगी लेकिन फ़्लॉप पिक्चर का क्या? वो सिनेमा को तस्वीर कहा करते थे। ज़िक्र इस बात का इसलिए किया क्योंकि सिफ़र ने भी तीन दिनों के अपने अलग-अलग अफ़सानों में हर नाटक को बच्चे की तरह पेश किया। ये बच्चे सिर्फ़ और सिर्फ़ मज़े से ज़िन्दगी-ज़िन्दगी जैसा कोई खेल खेले जा रहे थे..हंसाते..गमज़दा करते..चिढ़ाते ये बच्चे कब आपकी उंगली थामे आपके साथ हो लेते इस बात का पता भी ना चलता..सच में नाटक ख़त्म होते ही क़िरदार आपके मन में एक ख़ास जगह बना लेते हैं..मुझे ये बात बहुत जंचती है कि तस्वीरों(नाटकों) के अपने-अपने करिश्में होते हैं वरना सोचिए कि चंद घंटों में पूरी की पूरी ज़िन्दगी का दीदार कैसे हो..मन कर रहा है कि सिफ़र की शान में ऐसे ही शब्द रंगता जाउं..सिफ़र से ये पहला वास्ता है इसलिए आलोचनाओं के लिए स्पेस नहीं दिखता..अगली बार जब आपके नाटकों से नया नाता बनेगा तब criticism की गुंजाईश बनेगी..लेकिन चाहुंगा सिफ़र ऐसे ही इस रास्ते पर और नये मील के पत्थर गाड़े ताकि हमजैसे मुसाफ़िरों को ज़िन्दगी का ये सफ़र, सिफ़र के एहसान सा लगे..जुनैद..अमित..फ़िरोज़ भाई..अतुल..रितुराज..राज..हरिनी और सिफ़र के तमाम सारथियों..आप सभी का शुक्रिया..इस सफ़र का साथ मेरे लिए कभी ना भूलने वाला है..नयी क़िताब की महक जैसा सिफ़र..चाय में डूबी बिस्किट के स्वाद जैसा..जाड़ों की सुबह की पहली ओस के चरित्र की तरह है सिफ़र..आगे भी रंगमच के इस साथ का इंतज़ार रहेगा..

4 comments:

  1. बहुत अच्छा लिखते हैं आप...

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  2. shukriya..ye mere liye utsah badhane wali baat hai..

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  3. You have a tremendous writing talent :)..! Aapki hindi padhkar dil khush ho gaya.. n we need people like you to strengthen our confidence and encourage us ! Wish you a happy new 2011 :)

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