Wednesday, September 28, 2011

बनती..बहकती..संभलती सी..




ज़रा ज़रा सी बात पर घूंघट की ओट में छुप जाने वाली हया की मूरत आजकल बिंदास हो गयी है तो लोगों को मिर्ची लगने लगी है। बरसों से स्त्री के लिए सीमाएं बनाने वाले मर्द अब उसके खुलेपन पर अपनी बात आलोचनाओं की शक्ल में ना रखकर दो कौड़ी की फब्तियों के रूप में रखना ज़्यादा पसंद कर रहे हैं। हो सकता है कि मेरी उम्र और मेरा तजुर्बा स्त्रियों के विमर्श के क़ाबिल ना हो लेकिन उसके बावजूद मैं इस विषय पर अपना नज़रिया पेश करने से ख़ुद को ना रोक पाया।शुक्रिया ब्लॉग महोदय क्यूंकि यदि आप ना होते तो शायद मेरी बात को मंच ना मिलता।मेरा ऐसा मानना है कि उपभोक्तावादी समाज में स्त्री विमर्श बाज़ारू हो चुका है... ये बहस महज़ स्त्री चरित्र के इर्द गिर्द ही अपना रोना रोता है। खैर जो भी हो, मगर ना मेरी और ना ही मेरी समझ में किसी और की ये हैसियत या अधिकार है कि हम स्त्री के चरित्र का जजमेंट देखी सुनी बातों से करें। हां ये ज़रूर है कि हर पल बदल रही स्त्री को समझकर हम उसके इस परिवर्तन पर अपनी बात रख भर दें। दरअसल हुआ कुछ नहीं है सिर्फ महिलाएं थोड़ी बेबाक और बिंदास हो गई हैं। और बेबाकी के उसके इस नये शगल ने भले ही कुछ बुद्धजीवी मरदों को स्त्री पर शब्दों की उल्टी का मौका दे दिया हो लेकिन मेरी राय में ये हक़ क़तई नहीं दिया कि वो किसी निष्कर्ष तक पहुंच कर उसके जिन्दगी जीने के इस अंदाज़ पर अपना फ़तवा जारी कर दें। यक़ीन कीजिए मेरी इस बनती...बहकती...और फिर संभलती स्त्री से कोई खास हमदर्दी नहीं है और मैं भी इस बदलाव की आंधी के कई कणों को गलत मानता हूं। ये लेख मेरे संतुलित विश्वास की आवाज़ भर है जो शब्दों में तामीर होते ही शायद आपकी सोच को बदलने का माद्दा रखती है।

हम परिवर्तन की बात करते हैं और बदलाव को अक्सर एक सकारात्मक रूप में भी देखते हैं लेकिन जैसे ही कोई स्त्री, पुरूषों के अधिकारक्षेत्र में दखल देती है तो चुभन का एहसास पूरे मर्द समाज को होने लगता है। तल्ख और सच कहूं तो पहनावे को ही लें, तो रोज़ परंपरागत कपड़े पहनने वाली लड़की को अचानक पश्चिमी परिधानों में देख हर मोड़ पे ये जताते लोग मिल जायेंगे कि उसने ये गलत किया और समाज के सभ्य खांचे में ये फिट नहीं बैठता। आमतौर पे ऐसी शुरूआत परिवार से ही हो जाती है। अब मैं एक सवाल इस पुरूष समाज पर भी दागना चाहता हूं कि आखिर हमारे किसा पहनावे पर ऐसा पाबंदी क्यूं नहीं है ? सामाजिक सीमाओं में हमारे लिए ऐसे क़ायदे क्यूं नहीं हैं ? अगर स्त्रियों के पहनावे पर हमें आपत्ति है तो हमारे किसी पहनावे पर इस तरह के तेवर क्यों नहीं देखने को मिलते ? इसकी दो वजहें हो सकती हैं...पहला ,या तो हम संपूर्ण और श्रेष्ठ हैं...अगर ऐसा है तो हमें देवतातुल्य समझकर हमारी उपासना होनी चाहिए जोकि है नहीं। दूसरी बात जिसकी गुंजाईश मुझे समझ में आती है वो ये कि हमने अपने मुताबिक नियम बना लिए हैं जिसकी वजह से कभी हम ग़लत हो ही नहीं सकते। इस तरह अगर अपने आपको सामाजिक ताने बाने में परफ़ेक्ट सिद्ध करना है तो फिर तो हम पर कभी उंगली उठ ही नहीं सकती।इतिहास के इस मोड पर स्त्री की आजादी से हम सबको खतरा महसूस होने लगा है है। चाहे वह पुरूषवादी समाज हो या सरकार से लेकर बाजार,सभी तरह की शोषणकारी ताकते इस आजादी से डरती है, ये एक कटु सत्य है।इस व्यवस्था में मेरे हिसाब से स्त्री के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है वो0 अपने अनुकूल जीवन-ज्ञान-व्यवस्था का इजाद करें । लेकिन अपने अनुकूल नियमों को ज़ख्म की तरह सामाजिक पत्थर पर खोदने वाले हम पुरूषों को इतिहास की अनिवार्यता का आभास नही है।क्योंकि इतिहास अगर अवसर देता है और अवसर छीनता भी है। वह जिसको स्थापित करता है उसको उखाड़ता भी है। चेत जाईये वरना देर हो जायेगी, ये चेतावनी हिंदी के उन लेखकों के लिए ज्यादा है जो साहित्य की गंगा को अपनी जागीर समझकर औरतों को छिनाल शब्द से भी नवाज़ चुके हैं।

2 comments:

  1. Aap sahee kah rahe hain!
    Navratree kee anek shubh kamnayen!

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  2. मित्र दिल को छू देने वाले इस परिचर्चा का मै दिल से आभारी हूं,बहुत अच्छा लगा,हां इतना जरूर कहूंगा कि स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच बहुत बारीक रेखा है.जिसे न केवल स्त्री जाति ने बल्कि समाज के कर्णधारों ने भी लांघा है.परिवर्तन के लिए जरूरी है कि जो हमने पढ़ा है उसे लढ़ने का भी प्रयास किया जाये,मै इस लेख के लिये आपकों साधुवाद देता हूं, तुम्हारा भाई भास्कर

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राय ज़ाहिर करने की चीज़ है..छुपाने की नहीं..