Tuesday, March 16, 2010

ख़ुद की सोचते युवाओं की ख़ुदकुशी???


लौटने की ज़िद बेहद ज़रूरी शर्त है, उस दरम्यान जब परिवार की मसरूफ़ियत कुछ दर्द साझा करने का मौका ही नही देती..ये सूरते-हाल हमारे आस-पास या शायद हमारे ही घर का हो जिसे जानकर भी अनजान बनने में हम अपने नौनिहालों की भलाई समझ रहे हों तो गफ़लत की इस बेबुनियाद दीवार को शायद गिरा देना ही बेह्तर विकल्प है.. जगजीत सिंह की ग़ज़ल की चंद लाईने हैं.."पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है, अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं"..व्यावहारिकता के तराजू पर तौल कर देखिये, कुछ यही दर्द आपके उस बच्चे के दिल में भी सुबक-सुबक कर रो रहा मिलेगा आपको,जिसपे उम्मीदों और अपेक्षाओं का बोझ तो डाल दिया है आपने लेकिन इस बोझ से झुकती हुई पीठ की पीड़ा आप समझना ही नही चाहते..या यूँ कहें कि आप डरते हैं कि अगर इस कराह को थोड़ा क़रार देने की जुर्रत आपने कर दी तो उन सारी उम्मीदों के हिमालय क्या होगा जो उन कन्धों पर ड़ाल दिया गया है जो अभी बोझ को संभालना भी नही सीखे हैं..युवावस्था ऐसी डगर है जो भटकने और सवंरने दोनों का समान अवसर देती है..लेकिन आज के युवा के जल्दी आत्मनिर्भर बनने की महत्वाकांक्षा उसे सवंरने के मौके कम जबकि भटकने के मौके ज्यादा देती है...ख्वाहिशों के आसमान में केवल ख़ुद की सोचते युवाओं की ये महत्वाकांक्षा तब खतरनाक हो जाती है जब ये दायरे लांघने लगती हैं..आगे बढ़ने के कई असफल प्रयास उसे तोड़ देते हैं..क्यूंकि वो अपनी योग्यता और क्षमता दोनों का उल्लंघन करने को बेचैन रहता है..आस-पास की प्रतिस्पर्धा उसे कुछ सोचने का वक़्त ही नही देती...ऊपर से माँ-बाप के सपने जो शायद जायज़ हैं लेकिन फिर भी कहीं ना कहीं अपने बच्चे के लिए नाजायज़ दबाव की शक्ल अख्तियार कर लेते हैं और तब सपनो, ख्वाहिशों का पीछे छूटना लाज़मी है..यहाँ गलती इस युवा से कदम-कदम पर होती है..वो परिवार से कुछ नही कह पता क्यूंकि वो शायद विरोध होगा...माँ-बाप से सगा रिश्ता इस दुनिया में नही है इसलिए बाकी उसकी क्या मदद करेंगे ये भी वो जानता है...ये अन्तर्द्वन्द्व ही उसे ख़ुदकुशी का रास्ता चुनने की बात सुझाता है...सारे सपने टूट जाते हैं..सिवाय संताप और शोक के कुछ बाकी नहीं रह जाता...इसलिए दोषी कौन है इसपे बहस से अच्छा है अपने बच्चे को जानिए...और बच्चों को ज़रूरत है परिवार की एहमियत समझने की...

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