इधर अपने पेशे के बारे में लिखने का ही दिल कर रहा है..कोई खास वजह नही है, सिर्फ अपना नज़रिया इस क़रीब-क़रीब सच्ची दुनिया के बारे में ज़ाहिर करने का शौक चढ़ा है..मै एक प्रतिष्ठित मीडिया समूह का हिस्सा हूँ, ज़्यादा नही अभी केवल एक साल ही बिताये हैं ख़बरों के खेत में..बज़ाहिर है कि ख़बरों कि फसल का सही-सही अनुमान नही है मुझे..और ना ही इस बात से वाकिफ़ हूँ कि इस खेत में जो फ़सल लगी हुई है उन्हें बचाने के लिए पेस्टीसाइड रुपी जो अलग-अलग ट्रीटमेंट दिया जा रहा है इन ख़बरों को वो कहाँ तक जायज़ है?? हाँ लेकिन इतना ज़रूर समझ में आने लगा है कि हम जर्नलिज्म को एन्जॉय नही कर रहे हैं..मेरी नज़र में सभी पेशों से अलग पत्रकारिता असल मायने में करियर है, क्यूंकि यहाँ हमेशा आपको खुद की योग्यता के पैमाने को कायम रखने के साथ ही हरपल इसका स्टैण्डर्ड बढ़ाना भी पड़ता है..बदलते वक़्त के साथ जैसे हर चीज़ बदल रही है वैसे में पत्रकारिता ना बदले ऐसा सोचना सरासर बेईमानी है..लेकिन पता नही क्यूँ इस बदलाव से मुझे कोफ़्त होने लगी है..वजह पत्रकारिता की रफ़्तार है..अगर इसका मिज़ाज ऐसा होता तो मुझे ये कोफ़्त नही होती..दरअसल तेज़ी पर होती मेरी ये तक़लीफ़ इसकी बेक़ाबू रफ़्तार पर है..इस रफ़्तार ने कलम के सिपाही को पहरेदार से चौकीदार बना दिया है..जागते रहो या सुनो-सुनो की बानगी पेश करते हुए वो खबरों को सिर्फ और सिर्फ जल्दी पेश करने की फिराक में है...ऐसे में किस ओर जा रही है राह..आप भी चिंतन कीजिये.....
Saturday, March 20, 2010
पत्रकारिता को एन्जॉय करने की ज़रूरत..
इधर अपने पेशे के बारे में लिखने का ही दिल कर रहा है..कोई खास वजह नही है, सिर्फ अपना नज़रिया इस क़रीब-क़रीब सच्ची दुनिया के बारे में ज़ाहिर करने का शौक चढ़ा है..मै एक प्रतिष्ठित मीडिया समूह का हिस्सा हूँ, ज़्यादा नही अभी केवल एक साल ही बिताये हैं ख़बरों के खेत में..बज़ाहिर है कि ख़बरों कि फसल का सही-सही अनुमान नही है मुझे..और ना ही इस बात से वाकिफ़ हूँ कि इस खेत में जो फ़सल लगी हुई है उन्हें बचाने के लिए पेस्टीसाइड रुपी जो अलग-अलग ट्रीटमेंट दिया जा रहा है इन ख़बरों को वो कहाँ तक जायज़ है?? हाँ लेकिन इतना ज़रूर समझ में आने लगा है कि हम जर्नलिज्म को एन्जॉय नही कर रहे हैं..मेरी नज़र में सभी पेशों से अलग पत्रकारिता असल मायने में करियर है, क्यूंकि यहाँ हमेशा आपको खुद की योग्यता के पैमाने को कायम रखने के साथ ही हरपल इसका स्टैण्डर्ड बढ़ाना भी पड़ता है..बदलते वक़्त के साथ जैसे हर चीज़ बदल रही है वैसे में पत्रकारिता ना बदले ऐसा सोचना सरासर बेईमानी है..लेकिन पता नही क्यूँ इस बदलाव से मुझे कोफ़्त होने लगी है..वजह पत्रकारिता की रफ़्तार है..अगर इसका मिज़ाज ऐसा होता तो मुझे ये कोफ़्त नही होती..दरअसल तेज़ी पर होती मेरी ये तक़लीफ़ इसकी बेक़ाबू रफ़्तार पर है..इस रफ़्तार ने कलम के सिपाही को पहरेदार से चौकीदार बना दिया है..जागते रहो या सुनो-सुनो की बानगी पेश करते हुए वो खबरों को सिर्फ और सिर्फ जल्दी पेश करने की फिराक में है...ऐसे में किस ओर जा रही है राह..आप भी चिंतन कीजिये.....
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धूल जैसे क़दम से मिलती है ज़िंदगी रोज़ हमसे मिलती है ऐसे लोग कितने हैं इस दुनिया में जिन्हें शोहरत कलम से मिलती है...इसलिए इस पेश में जम जाइए और रम जाइए...एक दिन सफलता आपके क़दम ज़रूर चूमेगी...ऐसा मुझे यक़ीन है...
ReplyDeleteअंधों को आईने बांट देने से व्यवस्था में इस तरह की बदलाव लाजिमी है...क्योंकि फिर कौआ कान लेकर उड़ता है और तथाकथित बुद्धिजीवी उसके पीछे दौड़ लगाते हैं फिर कोई फर्क नहीं पड़ता, बदलाव बदलते वक्त का हिस्सा है, जो बेहद स्वाभाविक भी लगता है मुझे...इनवेस्टमेंट बढ़ी है तो एक दूसरे से आगे जाने की होड का बढ़ना भी स्वाभाविक है..लेकिन कोफ्त जाहिर तौर पर होती है,मुझे भी और हमारे जैसे बहुतों को जो इस व्यवस्था का हिस्सा हैं..महज रफ्तार से नहीं....बल्कि दिशाहीन रफ्तार से..
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