Monday, June 20, 2011

परेशां...

कुछ सांच को आंच आयी तो राख की कालिख मिट ना पाई,
शोर हुआ...सुकून के रहगुज़र परेशां हुए तब ये नौबत आयी...
सांवला..सोया पड़ा ज़ेहन चुप रहा तो तन्हाईयाँ चिल्ला उठीं...
सवाल करने लगीं..जवाब पढने लगीं..मन को छिलने लगीं...
पुछा..वो कौन सा वक़्त था जब ज़मीर को बदलने की ज़रूरत चली आयी...
जवाब कुछ सिल दिए थे मैंने ज़ुबां पर..आत्मा को कहीं ढँक छोड़ा था...
कहा..मेरी ग़ैरत बिकी नहीं..मेरा ज़मीर मृत भी नही..बेहोश भी मै नहीं...
फ़र्क रहा बस इतना...मुझे इरादों को झुठलाने की अदा नहीं आयी...
--प्रशान्त "प्रखर" पाण्डेय.

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