Saturday, October 9, 2010

ज़मीन पर जानलेवा जोर...


जो अपनी मिट्टी से रूठ कर चला जाता है, उसका इंतज़ार वो ज़मीं भी करती है लेकिन जब बहुत वक्त तक वो वापस नही आता तो उसकी धरती भी उससे ख़फ़ा हो जाती है। ये माटी की नाराज़गी नहीं बल्कि उसके सब्र की टूटी हुई आस की प्रतिक्रिया भर होती है। किसान ज़मीन का बेटा है और जब कभी भी एक मां को उसके लाडले से अलग होना पड़ेगा तो कराह तो आयेगी ही । ये अलग बात है कि इस कराह को सियासी शोर मे दबाने के भरसक जतन किये जा रहे हैं लेकिन ये बेटे अपनी मां का आंचल छोड़ने को तैयार नहीं। ऐसे में हमारे पॉलिटिकल प्लेयर्स को अब ये बात समझ लेनी चाहिये कि किसानों को माटी के नाम पर मोहरा बनाकर सियासत करना जोखिम भरा शॉट हो सकता है। किसान आंदोलन पहले भी होते थे॥आज भी हो रहें हैं, फ़र्क बस इतना है कि पहले किसानों की बातों का महत्व होता ही नही था और आजकल बात तो सुनी जाती है लेकिन उसके बाद सरकार से लेकर मीडिया और बुद्धजीवी वर्ग सभी ऐसे मूवमेंट को ग़लत बताने मे लगे रहते हैं। ये सो कॉल्ड सरोकारी लोग दलील देते हैं कि जब-जब भी किसान ऐसे आंदोलन करते हैं तो आम जनता की डेली लाईफ़ मे खलल पड़ता है..बिल्कुल पड़ता होगा साहब लेकिन क्या इन्होंने ये सोचने की ज़हमत उठाई कि आख़िर क्या मजबूरियां आन पड़ती हैं कि एक किसान कच्ची राहों को छोड़ फ़ोरलेन पर बदहवास होकर चीखता है? ऐसे कौन से हालात हैं जो इस बावले को गांव का निश्चिंत गगन भूलकर शहर के जंगल मे आने को विवश करते हैं? जवाब किसी ने ढूढने की कोशिश नही की, सिर्फ़ सवाल गढ़ते गये। किसान आंदोलन होते रहे है..आज भी होते हैं और आगे भी छिड़ते रहेंगे..ये तब भी होते थे जब जागीरदार और ज़मींदार इनकी आवाज़ को दबाने का काम करते थे..ये अब भी होते हैं जब पूंजीपती और सियासी सांप मिलकर इन्हें डंसने पर आमादा हैं और तय है कि ये आने वाले कल मे भी होंगे जब औद्योगीकरण की ये सहमी-सहमी सी हवा गांवो को भी अपने बिगड़ैल माहौल का आदि बनाने लगेगी।देश के हर कोने को खोज-खोज कर किसानों की ज़मीनों को नज़र लगायी जा रही है, अब ऐसे मे अगर किसान की प्रतिक्रिया तीख़ी हो तो ये बिल्कुल सही है। यहां बताना चाहुंगा कि मेरा जन्म कुशीनगर मे हुआ और यही मेरा गांव भी है। सच कहुं तो काफ़ी वक़्त गांव मे रहने के बावजू़द भी कभी किसानों की पीड़ा समझ मे नहीं आयी..और जब शहर मे पढ़ाई करने और ख़ुद की पहचान क़ायम करने आया तो भी गांव के सुकून को देखकर ही टीस बढ़ती। हमेशा लगता कि हम शहरिया लोगों से ज़्यादा सुखी गांव के लोग हैं, मुझे लगता है आप मे से भी अधिकतर लोग मेरी ही तरह राय रखते होंगे।दरअसल गांवों और किसानों के बारे में हमारी ऐसी सोच इसलिए है क्यूंकि हम शहरों की भागदौड़ भरी प्रतियोगिता के प्रतिभागी है और वाजिब है जब इस रेस की तुलना ग्रामीण इलाक़ो और किसानों की ज़िंदगी से करेंगे तो सुख-चैन वहां ज़्यादा दिखेगा जहां अफ़रा-तफ़री नहीं है लेकिन मंद गुज़र रही इनकी ज़िदगी मे कुछ ना सुख इनका अपना है और ना ही चैन। हम सभी अपने हक़ के लिए हल्ला मचाते हैं उसी तरह किसान भी सिर्फ अपने अधिकारों के लिए बोलते है हालांकि ये गौर करने वाली बात हैं कि जबतक ये आवाज़ शोर या दर्द भरी चिल्लाहट मे नही बदल जाती तबतक उन कानों मे कुलबुलाहट नहीं होती जो इस दर्द के ज़िम्मेदार होते हैं। सफल-असफल किसान आंदोलनों के बीच आप इनके दर्द भरे अफ़साने खबरिया चैनलों और समाचार पत्रों के पन्नों मे बुने हुए पाते भी हैं। मुझे लगता है किसान आदतन बिगड़ा हुआ है, सूखे के शैतान और बाढ़ के बवाल के बीच ये हमेशा कॉम्प्रॉमाईसिंग भूमिका मे रहा है। फसल हो या ना हो लगान तो देना ही पड़ेगा ये पुराने ज़माने के ज़मीदारों के बोलनचन होते थे, आजकल सीन थोड़ा चेंज है..फ़सल इतनी बटोर ली गई है कि गोदामों मे पड़े-पड़े सड़ रही है और बाक़ी का लगान ज़मीन पर ज़ोर लगाकर अपने हक़ मे करने मे लग रहा है। यक़ीन जानिए जो चींज़ें किसानों की नियति के दामन मे डाल दी जाती हैं उनमे कुछ बदलता नहीं है, वो सारा कुछ वक़्त की नाव पर सवार होकर बोझ बना चला आता है। आज़ादी के पहले से किसान आंदोलन होते आये हैं और जब कभी भी ऐसे विरोधों को सरकार को सामना करना पड़ा तो समाधान ढूंढने की बजाय इन्हें कुचल देना ज़्यादा ठीक समझा गया। इस विषय पर मेरी समझ भले ही नाकाफ़ी हो लेकिन इतना ज़रूर है कि पीड़ा को समझने मे किसी उम्र या अनुभव की दरकार नहीं होती। इस संजीदा विषय पर लिखने की ज़िम्मेदारी से मै भली-भांति वाक़िफ़ हूं और लिखने का मन इसलिए हुआ क्यूंकि जब टप्पल मे किसानों पर बर्बरता हुई तो उसका असर देश के बाक़ी ग्रामीण और आदिवासी इलाक़ों के साथ मेरी जन्मभूमि कुशीनगर मे भी दिखा। ज़मीन अधिग्रहण की चीत्कार भगवान बुद्ध की इस शांत धरा मे भी सुनाई पड़ी। बता दूं कि यहां भगवान बुद्ध के नाम की बैसाखी लेकर दो हजार पांच सौ करोड़ रूपए की मैत्रेय परियोजना( एक अंतर्राष्ट्रीय परियोजना) का खाका १९९० में खींचा गया। कुशीनगर जो कि उत्तर-प्रदेश का एक ज़िला है और इससे ज़्यादा इसकी पहचान इस रूप में है कि यहां महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन की अंतिम घड़ियां बितायी थीं और यहीं इनकी मृत्यु भी हुई। प्रोजेक्ट के मुताबिक यहां ५०० फ़ीट उंची मैत्रेय बुद्धा की कांस्य प्रतिमा बननी है, साथ ही एजुकेशन और हैल्थ के नज़रिए से भी इस विशेष इलाक़े को आबाद करना इस परियोजना के हिस्से में आता है। साथ ही इस इंटरनेशनल प्रोजेक्ट के लगे हाथों कुशीनगर में अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के निर्माण को भी ज़मीनी हक़ीक़त देने की योजना है। ज़ाहिर है इतने बड़े पैमाने पर जब परियोजना का दायरा हो तो ज़मीन की आवश्यकता तो होगी ही और कुशीनगर का ज़्यादातर हिस्सा खेती के उपयोग मे आता है, वो खेती जो किसान करते हैं और जिनकी ये ज़मीनें होती हैं। हालांकि इस बीच ख़बरें ऐसी भी आयीं कि मायावती सरकार ने पूर्वांचल मे किसान आंदोलन को बढ़ने देने से रोकने के लिए इस ज़िले के कुछ गांवों के किसानों की ज़मीन वापस करने का फ़ैसला किया है। ये ज़मीने हवाई अड्डे के विस्तार की योजना से अलग करके किसानों को वापस करने का आदेश हो गया है। साथ ही उत्तर प्रदेश सरकार ने कुशीनगर में प्रस्तावित विवादास्पद मैत्री परियोजना को रद्द करने का भी संकेत दिया है। इस परियोजना से पीड़ित सैकड़ों किसान पिछले कुछ सालों से लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं। माया मैडम ने चाहे डर के मारे ये क़दम उठाया हो या फिर पश्चिम में अलीगढ़ और आगरा के किसानों के आन्दोलन से सहम कर या किसी और दबाव मे, मगर राहत इस बात की है कि जो किसान अपनी जान देकर भी ज़मीन ना देने की बात कह रहे थे उनकी जान की कीमत उन्हें समझ में आई। उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि देश की पूरी चौहद्दी मे किसान औद्योगीकरण और विकास के नाते अपनी जान गंवाने पर मजबूर किए जा रहे हैं। ये सारे औद्योगीकरण के हिमायती लोग किसानों के हक़ के साथ उनकी जान लेने की तैयारी मे हैं। विकास के पॉपुलर खांचे में किसानों की बलि एक इनवेस्टमेंट बन गया है। हांलाकि किसानों के हितैषी बनने का दम भरने वाले और ख़ुद को तथाकथित किसान नेता कहलवाने का आलाप करने वाले मौकापरस्त नेता भी सत्ता के शहरों मे जाकर गांव मे कॉर्पोरेट खेती की वक़ालत करने लगते हैं। सिंगूर हो या नंदीग्राम, टप्पल हो या विदर्भ, हर तरफ पूंजीवादी साम्राज्यवाद की आंच पर किसानों की जान और ज़मीन का लहू पक रहा है। ये उपभोक्तावादी सभ्यता के साहूकार इस बात को समझना ही नहीं चाहते कि किसान को ज़मीन के बदले पैसा नहीं ज़मीन ही चाहिए। पैसे देकर क्या भला होगा? पैसों के तो पांच पैर होते हैं, आज नहीं तो कल ख़र्च होंगे ही, ऐसे में लाखों छोटे गांवो और क़स्बे के इस देश के किसानों की ख़िलाफत को समझिए, वो घाटे की खेती मे भी कम से कम जी तो रहा है, इसलिए कृपा करके ज़मीन पर ये जानलेवा जो़र बंद कीजिए।

5 comments:

  1. very well written.. paise ke toh paanch pair hote hai.. sahi kaha aapne.. bhool gaye hai ham log ki yahi dharti hai jo hamare jeene ka base hai.. hamaare jeewan ka aadhar hai aur jo iis jameen ki iis dharti ko sahi roop mai seench kar hamari hi jindagai ka pahiya aage chala rahe hai.. kuch swarthi log oon ka hi shoshan kar ke apni bhi aur hamari bhi chalne wali saanso ko dheere dheere bandh kar rahe hai.. Yeh boj tab tak nahi ootarega jab tak iis dharti ko samajhne wale kisaan aur hamara connection jo is dharti ke sath juda hua hai... oos connection ko abaad rakhne wale oon kisaano ko jab tak oonka hakk nahi mil jata... jo oonhe milna chahiye... yeh note bahut hi sachhi hai.. aur ham sab ko yeh abhiyaan chalana chahiye... thanks for sharing your concern.. we are with u.

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  2. yar prasu,,, rahat indori ka ek sher ek sher yad aa raha hai...

    sisyasat me zaruri hai ravadari... samjhta hai
    vo roza to nahi rakhta.... aftari samajhta hai
    achanak bansuri se dard ki lehre ubharti hai
    juzarti hai jo radha par girdhari samajhta hai



    to he girdhari tumhari kisan rupi radha ko ye ravadari samjhne wale log keval aftari de rahe hai.. in par kabhi vishwas mat karna.... varna ye bansuri rupi dharti se fasal rupi chain ki dhun gayab ho jaegi

    Umda Dost Umda

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  3. thnx 4 da really encouraging comments babboo..U've always been appreciable..

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  4. Khet aur kisan is desh ki dhamniyaan hain aur gaanv;hriday.Inki keemat lag hi nahin sakti.Bapu ne gaanv ki pagdandiyon mein azadi ki raah dhoondh li.Lekin azadi mili toh uske maayne unhin sheharon mein simat gaye jinhein angrezon ne abaad kiya tha.
    Khud-mukhtar Bharat ke rehnumaon ne rooh nahin balki 'Chamddi' chamkaane ki raah pakadd li.Aaj usi raah par chalte-chalte sabki khaal itni moti ho chuki hai ki kisi ko iska ilhaam nahin ki andar ka goshtt sookh raha hai.
    Michael Jackson apni khaal badal sakte thhey,khaal ko zinda rakhne wali shirayein aur dhamniyaan nahin.Iss marmm ko samajhne-samjhaane ki disha mein tumhara ye lekh ek saarthak pahal hai.Lage raho...Santosh Pandey

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  5. shukriya sir...aapki hausla-afzayi mujhe motivate karti hai..

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राय ज़ाहिर करने की चीज़ है..छुपाने की नहीं..