Sunday, September 1, 2019

शिकायत...

शिकायत

टटोलते रहे तकियों के नीचे सोये सपनो को..
शिक़ायत उसे बज़्म में आने से रही होगी..
सालते रहे मर्ज़ डकैत नज़रों के पीछे खड़े गुनाहों के..
कसावट उन्हें रिश्ते की ज़ंजीरो में मिली होगी..


कुछ चेहरों...गैरों की ज़ुबां पर तुम्हारे नाम से जलन होती है..

जिन फूलों के कांटों तक से दोस्ती थी..उनकी खुशबु तक से आज चुभन होती है..
तुमसे ज़मीन का फ़ासला अब भी कम है..मगर क़रीबी की इस दूरी से पैरों में तपन होती है..
कल मौसम पिछले साल जैसा ही था..बस तुम साथ नहीं थे..ऐसी यादों से भी शिकन होती है..

आँसू इक दफ़ा फिर बहा है..कौन जाने किस दर्द से सिहर उठा है..

घाव नज़र में अब आने लगे हैं..लहू मिट्टी के रंग में चिपकने लगा है..

मेरी चुप्पियाँ पूरी रात मेरे हक़ की आवाज़ से लड़ती हैं..

कुछ सतही बूँदें बारिश की हर छेड़छाड़ से चिढती हैं...
शाम के जले जिस्म के टुकड़े, चाँद के दीदार को डरते हैं..
ख़ुशी हासिल जाने क्यूँ पुराने घर में नही होती...
नए से वादे..नए से दोस्त..उदासी ख़ुदकुशी पे मरती है...

अंधरों में टहलते चेहरों के कुछ बादल...

अरसे से पोंछते चले आये जिन चेहरों को हम..उनपर आँसू के दाग...
हाँ ठीक ही कहा हमने..दाग़..
रोने के बाद जब अश्क़ों के धब्बे अपने निशां छोड़ते चलें तो तक़लीफ़ सदियों बाद समझ आती है..
कभी कभी ज़िन्दगी देकर भी कुछ ख़ताएँ कफ़न में चिपकी चली आती हैं...
क़र्ज़ तो हमेशा क़र्ज़ ही रहने वाला है...एहसान जताती चली है ये दुनिया..इसलिए कभी चुक नहीं पाता ये क़र्ज़...

वो जिस्म से जिस्म छिल जाने की रात थी...

तुममे हमारा कुछ  मिल जाने की रात थी..
ढूँढा था तुम्हारे होठों पे अपना नाम...
वो लबों की तह में समा जाने की रात थी..
धीरे धीरे सिहरन हुई...दो धडकनों के एक हो जाने की रात थी...
तुम टटोल रही थी थकी अपनी साँसे..मेरे तो इनमे बहक जाने की रात थी..
 वो जिस्म से जिस्म छिल जाने की रात थी...

-प्रशान्त "प्रखर" पाण्डेय 

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